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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःउन्मादिनी


वैश्या की लड़की

समाज में भी अब वह मान-प्रतिष्ठा न थी। हर स्थान पर उनके इसी विवाह की चर्चा सुनाई पड़ती। प्रमोद के इस कार्य से ही नहीं, स्वयं प्रमोद से भी किसी को किसी प्रकार की कोई सहानुभूति न रह गई थी। सब लोग प्रायः यही कहते कि प्रमोद दो ही तीन साल के बाद अपने इस कृत्य पर पछताएगा ।...यह विवाह प्रमोद-सरीखे विवेकी और विद्वान्‌ युवक के अनुकूल नहीं हुआ...ठहरी तो आखिर वेश्या की ही लड़की न? कितने दिन तक साथ देगी? वेश्याएँ भी किसी की होकर रही हैं, या यही रहेगी?...

इस प्रकार न जाने कितने तरह के आक्षेप प्रमोद के सुनने में आते। इन सब बातों को सुन-सुनकर प्रमोद की आत्मा विचलित-सी हो उठी। उन्हें इन सब बातों का मूल कारण छाया ही जान पड़ती। वे सोचते, कहाँ से मेरी छाया से पहचान हुई? न उससे मेरी पहचान होती और न विपत्तियों का समूह इस प्रकार मुझ पर टूट पड़ता।

वे अब छाया से कुछ खिंचे-खिंचे से रहने लगे। उनके प्रेम में अपने आप शिथलता आने लगी। छाया का मूल्य उनकी आँखों में घटने लगा, पर प्रमोद स्वयं ये सब चाहते न थे। छाया में वेश्या की लड़की होने के अतिरिक्त और कोई अवगुण मिलता न था। वे विवश थे। हृदय के ऊपर किसका वश चला है? वे अपने व्यवहार पर स्वयं ही कभी-कभी दुःखित हो जाते, फिर वही भूल करते। कभी-कभी औरों के सामने भी छाया से वह ऐसा व्यवहार कर बैठते जो अनुचित कहा जा सकता था।

छाया, सुख की छाया में ही पलकर बड़ी हुई थी। अपमान, अनादर और तिरस्कार के ज्वालामय संसार से वह परिचित न थी। अब पद-पद पर उसे प्रमोद से प्रेम के कुछ मीठे शब्दों के स्थान पर तिरस्कार से भरा हुआ अपमान ही मिलता था। प्रमोद के इस परिवर्तन के बाद भी छाया ने समझ लिया था कि प्रमोद के हृदय में उसने एक ऐसा स्थान बना लिया है जिस तक किसी और की पहुँच नहीं है, उसे इसी में संतोष था। एक कुल-वधू इसके अतिरिक्त और चाहती ही क्या है?

पत्नी के रूप में पहुँचकर छाया ने अपना अस्तित्व ही मिटा दिया था। प्रमोद के चरणों में उसके लिए थोड़ा-सा स्थान बना रहे, यही उसकी साधना थी, और इस साधना के बल पर ही वह प्रमोद का किया हुआ अपमान और तिरस्कार हँसकर सह सकती थी। उसके ऊपर उस अपमन और तिरस्कार का अधिक प्रभाव न पड़ता। प्रमोद के जरा हँसकर बोलने पर वह सब कुछ भूल जाती थी। उसे कुछ याद रहता तो केवल प्रमोद का मधुर व्यवहार ।

प्रमोद के माता-पिता आखिर पुत्र को कितने दिनों तक छोड़कर रह सकते थे? और अब तो प्रमोद के साथ-साथ उन्हें छाया पर भी ममता हो गई थी। उनका क्रोध महीने, डेढ़ महीने से अधिक न ठहर सका। वह समाज के पीछे अपने प्यारे पुत्र को नहीं छोड़ सकते थे। हृदय कहता था, चलो मना लाओ, बेटा आत्माभिमानी है तो पिता को नम्र होना चाहिए, किंतु आत्माभिमान आकर उसी समय गला पकड़ लेता, पुत्र के दरवाजे स्वयं उसे मनाने के लिए जाना, उन्हें अपनी प्रतिष्ठा के अनुकूल न जान पड़ता। फिर पुत्र ही तो है, यदि वह पिता के पास तक आ जाए तो क्‍या उसकी शान में फर्क आ जाएगा?

सारांश यह कि चन्द्रभूषण और सुमित्रा अब बहू-बेटे के लिए व्याकुल होते हुए भी उन्हें बुला न सके । एक दिन एक व्यक्ति ने आकर कहा कि प्रमोद बहुत दुबला हो गया है और कुछ बीमार-सा है। माता का हृदय पानी-पानी हो गया। उसने उसी समय एक नौकर के हाथ कुछ रुपए भेजकर कहला भेजा कि प्रमोद आकर उनसे मिल जाए। रुपए तो प्रमोद ने ले लिए क्योंकि उन्हें आवश्यकता थी; परंतु वे घर न जा सके। उन्होंने समझा माँ ने पिता की चोरी से घर में बुलवाया है, इसलिए जिस घर में वे पैदा हुए, जहाँ के जलवायु में पलकर इतने बड़े हुए, उसी घर में चोर की तरह जाना उन्हें भाया नहीं। वे नहीं गए; जाना अस्वीकार कर दिया।

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